Tuesday, January 5, 2010

जीने की चाह

यूँ तो देश और समाज में हमारी तादाद आधी है और इस दुनिया को जिंदा रखने में भी हमारा योगदान ज़यादा नहीं तो कम से कम आधा ज़रूर है यह भी हकीकत है कि हमारे वजूद को यदि नकारा नहीं गया तो इसे सही मायनों में सविकारा भी नहीं गया इस सृष्टी का कायम रहना महिलाओं के वजूद को स्वीकारे बिना सम्भव नहीं है मगर इन सब बातों का असर निश्चित तौर पर न केवल महिलाओं पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ना लाजिमी है फिर भी सदियों से यही दास्ताँ बदस्तूर ज़ारी है हमारा समाज आज भी महान तुलसीजी के कालजयी कथन " ढोल, पशु, शुद्र नारी, यह सब ताड़न के अधिकारी " पर अमल करता प्रतीत हो रहा है आज भी नारी अबला है उसे आज भी अपने वजूद की लड़ाई और अधिक शिद्दत और मुखरता से लड़नी पड़ रही है बराबरी का सपना देखा है तो लड़ने से कैसा परहेज़
मैं भी एक ऐसी ही महिला हूँ मैंने भी दुनिया की धूप छाँव देखी है आस -पड़ोस में रोज़ नई- नई बातें सुन ने को मिल रही हैं कि सरकार गाँव देहात का नक्शा बदलने की मंशा रखती है मुझे भी अब लगने लगा है कि ज़रूर कुछ न कुछ बेहतर होगा हमारी भी ज़िन्दगी की नई सुबह होगी नवयोवनाओं को इज्ज़त और सम्मान के साथ साथ घर और समाज में पहचान मिलेगी चलो एक आशा कि किरण दिखने का आभास तो हुआ चलो कोई ना , बराबरी नहीं तो कोई बात नहीं मगर हमारे होने का तो आभास हो सका सुना है हमारे लिए एक नया मह्क़मा भी खड़ा किया है शायद अब सोच के स्तर पर भी कुछ न कुछ ज़रूर बदलेगा जब हमारा विकास होगा तो ही समाज और यह देश जीने लायक बन सकेगा शायद जल्द ही ऐसा मौक़ा मिले कि हमें भी अपने महिला होने पर गुमान हो आपको भी ऐसा देखकर अच्छा लगे , ऐसी तमन्ना है मेरी महिला और विकास नारा नहीं बल्कि एक हकीकत बनते देखने का अरमान है

2 comments:

  1. You have lamnated a true picture of contemporary society. Perhaps efforts of people like you will pave new era for women where they find the society worth living.

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